श्रीमद् भगवद् गीता के इन उपदेशों को अपना लिया तो जीवन हो जाएगा सफल

कहते हैं श्रीमद् भगवद् गीता में जीवन का सार बताया गया है और अगर कोई व्यक्ति गीता के ज्ञान को अपने जीवन में उतार ले तो वो किसी भी परिस्थिति का सामना बहुत आसनी से कर सकता है. कहते हैं गीता के पूर्ण ज्ञान को अपने जीवन में उतारना हर किसी के वश की बात नहीं है लेकिन गीता के कुछ उपदेश ऐसे हैं जिन्हें हर व्यक्ति को अपनाना चाहिए और उसे आजमाने से वह खुश हो सकते हैं. आज हम आपको गीता के कुछ प्रमुख उपदेश बताने जा रहे हैं जो आपको लाभ दे सकते हैं. आइए जानते हैं कौन से हैं वो उपदेश.


यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।


आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥


जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।



न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥


भावार्थ : उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता।


 


तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।


असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥


भावार्थ : निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभांति करता रहे क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।


कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।


लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥


भावार्थ : जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात तेरा कर्म करना ही उचित है।


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।


स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥


भावार्थ : श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं. वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।


न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।


नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥: हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूं।