जीवनसंवाद: मन की चोट और स्नेह!

ठंड के मौसम में शरीर की पुरानी चोट अक्‍सर दर्द देती है. मौसम बदलता है, हम उसे भूल जाते हैं. शरीर की चोट की याद आती-जाती रहती है लेकिन कुछ चोट गहरे असर करती हैं. वह न तो शरीर से मिली होती है, न ही उसका असर शरीर तक होता है.


मन को लगने वाली चोट का दर्द गहरा होता है. आत्‍मा तक उतर जाता है. जो जख्‍म मन में गहरे उतर जाता है, उसका रंग बड़ी मुश्किल से उतरता है. इसलिए, ऐसी चोट के प्रति स्‍वयं के साथ परिवार, मित्र और उन सभी की सजगता चाहिए, जो आपसे प्रेम करते हैं.


भोपाल से एक पाठक की प्रतिक्रि‍या ने शुक्रवार की शाम मेरी आंखें नम कर दीं. उन्‍होंने बताया, वह शोक में डूबे अपने परिवार (पड़़ोसी) में चाचा जी को दो-तीन महीने से जीवन संवाद के लेख साझा कर रहीं थी. क्‍योंकि वह खुद उन्‍हें सांत्‍वना देने की स्थिति में नहीं थीं. इसलिए, वह हर दिन एक लेख उन्‍हें भेज देतीं. यह सिलसिला दो महीने से जारी था.


कुछ दिन पहले जब वह उनसे मिलीं तो चाचा जी ने कहा कि उनको 'जीवन संवाद' से जीवन की प्रेरणा मिली. दुख तो आया है, लेकिन उससे आंखें चुराकर जिंदगी नहीं जीना. उससे लोहा लेना है. जीना ही है! इसका कोई विकल्‍प नहीं.यह भावुक क्षण था. अगर मेरा लेखन किसी के लिए इतना भी कर पा रहा है तो मेरे लिए यह किसी भी काम से बढ़कर है!


सत्रह बरस की उम्र क्‍या होती है. काश! हम बच्‍चों को समझा सकें कि वह हमें आसानी से मना कर सकते हैं. हम उनकी न सुनने के लिए तैयार हैं. इसके साथ ही माता-पिता को भी यह समझने की जरूरत है कि बच्‍चा अगर उनके सुझाए रास्‍ते पर नहीं चल पा रहा है तो इसमें कोई गलती नहीं. बहुत संभव है कि चीजें उसकी समझ/क्षमता से ही बाहर हों.


किसी भी परीक्षा, सपना को बच्‍चे की जिंदगी से मूल्‍यवान नहीं समझना है. यह बात जितनी माता-पिता को समझनी जरूरी है, उतनी ही बच्‍चों को भी.